रत्नत्रय
१. सम्यकदर्शन
२. सम्यकज्ञान
३. सम्यक्चारित्र
२. सम्यकज्ञान
३. सम्यक्चारित्र
१. सम्यक दर्शन
अपने आत्म स्वरूप के अनुभूतियुत बोध को सम्यक्दर्शन कहते है।२. सम्यक ज्ञान
स्व-पर के यथार्थ निर्णय को सम्यक्ज्ञान कहते है।जानता है। इस सम्यक्ज्ञान स्वभाव वाला में शुद्धात्मा हूँ।सम्यक्ज्ञान पूर्वक जो जीव आत्म स्वभाव को जानता है यही मुक्ति का मार्ग सिद्ध स्वरूप में लीन होने का उपाय है।
जिनेन्द्र परमात्मा कहते है कि ज्ञान समस्त रूपों से
अतीत है और सम्पूर्ण लोक को व्यक्त करने वाला है, यह सम्यक्ज्ञान ही तीन लोक में
सार है।
३. सम्यक्चारित्र
ज्ञायक ज्ञान स्वभाव में रहने को सम्यक्चारित्र कहते है।पहला सम्यक्त्वाचरण चारित्र है, दूसरा संयमाचरण चारित्र है।
सम्यक्त्वाचरण चारित्र सहित जो जीव दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में आचरण करते है, वे कर्म मलों की प्रकृतियों से मुक्त होकर अल्पकाल में निर्वाण को प्राप्त करते है।
सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान प्राप्त करके अब सम्यकचारित्र प्रगट करना चाहिये! उस सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं- एकदेश चारित्र तथा सकलचारित्र!
करते हैं!
सकल चारित्र- इसका पालन हमारे मुनिराज करते हैं!
समस्त पाप सहित मन वचनकाय के योगों को त्याग करने से चारित्र होता है!
हिंसा झूट चोरी कुशील और परिग्रह-ये पांचों पापों के आगमन के परनाले हैं- इनसे विरक्त होना ही चारित्र है!
मुख्योपचाररूप: प्रापयति परं पदं पुरुषम्।।
अपने
आत्मा का निश्चय सम्यक दर्शन है आपने आत्मा का ज्ञान सम्यक ज्ञान है अपने आत्मा
में स्थिरता सम्यक चारित्र है। इन तीनों से कर्म बंध नहीं होता है। निश्चय व्यवहार
रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग यही आत्मा को परम पद में पहुंचा देता है।
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